क्या है किसान आंदोलन के पीछे की सच्चाई?
अब जब किसानों ने, या यूँ कहें कि किसानों के भेष में कुछ उग्रवादियों ने पंजाब में मोबाइल टावरों को अपना निशाना बनाना शुरू किया है तो ये सवाल और भी गंभीर हो जाता है कि इस किसान आंदोलन के पीछे कि सच्चाई क्या है, और इस पूरे प्रकरण में कम्युनिस्ट पार्टी का क्या काम है?

जब से किसान आंदोलन शुरू हुआ है, एक के बाद एक अलग अलग जगहों से अलग अलग किसान संघ इस आंदोलन से जुड़ते चले गए। और इस पूरे प्रकरण में एक बात तो समान रूप से देखने को मिली वो है कम्युनिस्ट पार्टी वाला लाल झंडा। चाहे प्रदर्शन दिल्ली के सिंघु बॉर्डर पे हो या ग़ाज़ीपुर बॉर्डर पे, लाल झंडा का होना स्वाभाविक सा लगता है। और फिर जब आंदोलन को दिशा देने वाले किसान नेताओं के इतिहास को खंगाला गया तो वहां भी लगभग सभी नेताओं का किसी न किसी तरह से कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़ाव नज़र आता है।
सवाल है कि अगर ये आंदोलन किसानों का नए कृषि कानूनों के खिलाफ है तो फिर उसमे कम्युनिस्ट पार्टी का क्या काम। बात तो किसान और सरकार के बीच की है, जैसा कि शुरू के 3-4 दौर के बातचीत में हुआ। क्यों कम्युनिस्ट पार्टी इस पूरे आंदोलन को अपने हिसाब से चला रही है?
और अब जब किसानों ने, या यूँ कहें कि किसानों के भेष में कुछ उग्रवादियों ने पंजाब में मोबाइल टावरों को अपना निशाना बनाना शुरू किया है तो ये सवाल और भी गंभीर हो जाता है कि इस किसान आंदोलन के पीछे कि सच्चाई क्या है, और इस पूरे प्रकरण में कम्युनिस्ट पार्टी का क्या काम है?
भारत का नुकसान, चाइना का फायदा
चाहे वो 2019 में शुरू हुए सी ऐ ऐ आंदोलन कि बात हो, या कोरोना को लेकर सरकार के इन्तेज़ामों पर सवाल उठाने कि बात हो, चाहे वो जे इ इ इंजीनियरिंग के परीक्षा की छोटी सी बात हो या अब नए कृषि कानून के खिलाफ आंदोलन की बात हो, इन सब मौकों पे भारत ही नहीं, पश्चिमी देशों के कई नामचीन अखबारों इन पर लम्बे लम्बे लेख लिखे गए। और उन सारे लेखों में भारत सरकार को एक तानाशाही की तरह दिखाया गया जो अपनी जनता पे जबरन अपने फैसले थोपता रहता है। ऐसा करने के पीछे मकसद क्या है?
मकसद साफ़ है, भारत सरकार को जितना तानाशाही दिखाएंगे और भारत को अस्थिर, निवेशक और विदेशी कंपनियां भारत से उतनी ही दूर जाएँगी। कोई भी कंपनी किसी भी देश में निवेश करने से पहले वहां के हालत, क़ानून व्यवस्था और नियमों में पारदर्शिता देखती है।
जिस तरह से अमेरिका के साथ ट्रेड वॉर और फिर अब कोरोना के कारण कई मल्टीनेशनल कंपनियों ने चाइना से अपना निवेश समेट के भारत जैसे देशों का रुख करने का फैसला लिया, चाइना की ग्लोबल रेपुटेशन को गहरा चोट पंहुचा है। चुकी भारत चाइना के मुकाबले एक अच्छा विकल्प है किसी भी कंपनी के लिए, चाइना ये बिलकुल चाहेगा कि भारत में कुछ ऐसा हो कि ये कम्पनीज यहाँ भारत में अपने निवेश के फैसले को पुनर्विचार करें।
और शायद यही कारन है कि चाहे वो एप्पल कंपनी के सप्लायर विस्तरों के कर्नाटक स्थित ऑफिस में तोड़फोड़ की खबर हो या फिर किसान आंदोलन की खबर, चाइना ने इन्हे बढ़ा चढ़ा के पॉप्युलेट किया है।
और शायद यही कारन है कि चाइना ने भारत के कम्युनिस्ट पार्टी को यहाँ अस्थिरता पैदा करने के लिए काम पे लगाया हुआ है। भला किसान आंदोलन में भारतीय निजी कंपनियों को निशाना बनाने का क्या कारन हो सकता है?
दुनिया और कम्युनिस्ट पार्टी को भारत का जवाब
नेशनल इनवेस्टिगेटिव एजेंसी ने ये साबित किया है कि सी ऐ ऐ आंदोलन और दिल्ली दंगों को फण्ड करने के लिए विदेश से पैसे आये थे। जांच एजेंसी ने ये भी साबित किया कि हाथरस मामले को दंगों का रूप देने के लिए भी विदेशों से पैसे आये थे। कुल मिला के कई विदेशी ताकतें भारत के विरुद्ध काम कर रही हैं। उसके ऊपर से कोरोना के कारण अर्थव्यवस्था को लगे अल्पविराम से भी बहुत निकसान हुआ। बावजूद इसके, भारत सरकार ने रिकॉर्ड विदेशी निवेश अर्जित किया, विदेशी कंपनियों का भरोसा जीता और देश कि अर्थव्यवस्था को वापस पटरी पे लेन का काम किया। और उसी दृढ संकल्प के साथ अंतर्राष्ट्रीय स्तर के भारत का कद बढ़ाया है।
इन सब बनावटी परिस्थितियों के बावजूद भारत सरकार अपने देश कि जनता का भरोसा जितने के कामयाब रही है। संभवतः सरकार आगे भी अपने रिफॉर्म्स को कायम रखेगी और कम्युनिस्ट पार्टी के दवाबों में नहीं आएगी।